वह लड़का ट्रेन में बैठा, खिड़की के बगल वाली सीट पर| ट्रेन में बिलकुल भीड़ नहीं थी और बाहर का मौसम भी सुहाना था| शाम का वक़्त था, शायद बारिश होने वाली थी| उसने खुद को सहज किया, रास्ता लम्बा था तो सोचा कोई किताब पढ़ी जाए क्योंकि उसे घर जाते वक़्त एक-दो किताबें ले जाने की आदत थी ताकि माँ-बाप को लगे कि उनका बेटा पढ़ रहा है| ट्रेन छूटी, उसने खिड़की से बाहर देखा और फिर पढ़ने लगा| एक पन्ना बीता, फिर दूसरा, तीसरा... अभी वो पाँचवे पन्ने पर था तभी ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी| उसने खिड़की से बाहर देखा, अपनी आँखों को आराम दिया| ट्रेन फिर चली और वो पढ़ने में मशगूल हो गया|

तभी एकाएक महक उठी और आवाज़ आई ‘एक्सक्यूज़ मी?’ उसने आँखें ऊपर की और देखा एक बला की खुबसूरत लड़की उसके सामने खड़ी थी| अब क्या था उसकी आँखों में चमक आ गयी और मन में असंख्य विचार अठखेलियाँ करने लगे| तभी दूसरी आवाज़ आई ‘इज दिस योर बैग’? सामने वाली सीट को खाली देखकर उसने अपना बैग वहाँ रख दिया था| वो बोला ‘हाँ’ और चुपचाप अपना बैग उठाकर अपनी सीट के नीचे रख लिया| और इस तरह उसके सामने वाली सीट पर बैठकर उस मोहिनी ने उस रिक्त स्थान की पूर्ति कर दी|

उसने सामने देखा, दोनों की आँखें मिलीं, वो मुस्कुरायी और लड़के ने महसूस किया कि उसका शरीर हल्का हो गया है ठीक वैसे ही जैसा गोल वाले झूले पर ऊपर से नीचे आते वक़्त होता है| शरीर में यकायक तरंगे दौड़ गयीं और जैसे उसके शरीर में उपस्थित तंत्रिका-तंत्र के प्रत्येक अवयव सामने वाली सीट से मिलने वाले हर सिग्नल को बड़ी तत्परता से मस्तिष्क तक पहुँचाने के लिए व्याकुल थे| लड़का शांत था, वो अब सहज नहीं था| उसके भावभंगिमा में गंभीरता थी परन्तु मन ही मन अपनी प्रसन्नता को समेटने की कोशिश कर रहा था|

तभी नर्वस सिस्टम ने आवाज़ लगाई- जब उसने सवाल पूछा ‘इज़ दिस योर बैग’ तब तुम ‘हाँ’ की जगह ‘ओह श्योर’ भी तो बोल सकते थे वरना उसे कैसे पता चलेगा की तुम इंग्लिश मीडियम में ग्रेजुएशन कर रहे हो|  फिर वो मन में ही बोला ‘ओह श्योर’, स्पेलिंग दुहराया और निश्चय किया कि अगली बार मौका मिला तो ज़वाब पक्का अंग्रेजी में देगा|

लड़की ने अपना लगेज बर्थ के नीचे रखा, अपना फोन निकाला, ईयरफोन लगाया और कैंडी क्रश खेलने लगी| इधर लड़के को भी क्रश हो ही चुका था| लड़के ने किताब उठाई, पढ़ने लगा लेकिन अब उसे यह ज्ञात हो चुका था की प्राचीन काल में अप्सराएं कैसे तपस्या भंग करने के लिए उपयोग में लायी जाती होंगी| अब वह पढ़ने का दिखावा कर रहा था| वो तो गेम खेलने में व्यस्त थी तो उसने उसे आँख भर कर देखा और अपादमस्तक अवलोकन किया या कहें कि स्कैन करने लगा|

‘चेहरे पर चमक है और आँखें कंटीली, तीखीं नाक और अधर थोड़ा भूरापन लिए जैसे एक्लेयर्स टॉफ़ी| हायSS...कसम से क्या बनाया है? पूरे समर वेकेशन में यही बनी होगी| शरीर एकदम भरा पूरा, जहाँ जितना होना चाहिए वहाँ उतना था, न ज्यादा न कम, परफेक्ट| फिर उसने स्वयं की ओर देखा और तसल्ली दी की मैं  भी स्मार्ट हूँ और सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी अच्छा है, बस अपना फीमेल इंटरेक्शन कम है|

फिर उसने सोचा की कुछ बात करता हूँ किसी बहाने से, वो तो कुछ बोलेगी नहीं तो मैं ही कोशिश करता हूँ| पर क्या बोलूं...उम्म...ठीक है पानी मांगता हूँ| पर पूछूँगा कैसे... हैलो या एक्सक्यूज़ मी? इससे ज्यादा बोलूँगा तो कहीं ग्रामेटिकल मिस्टेक ना हो जाये| मन में बोला ‘एक्सक्यूज़ मी’... फिर फैसला किया अब बोलूँगा और बोल दिया ‘एक्सक्यूज़ मी’? आवेग में आवाज़ तेज़ निकली तो अगल बगल बैठे लोग देखने लगे, लड़की ने भी देखा| उसने पूछा आपके के पास पानी है? जवाब मिला ‘या’ उसने अपनी बोतल दे दी और लड़का बोला ‘ओह श्योर’|

तभी नर्वस सिस्टम ने फटकार लगाई कि इस बार ‘थैंक यू’ बोलना था ना कि ओह श्योर उसे लगा ये तो मिस्टेक हो गया| खैर पानी पीने के बाद उसने बोतल लौटाई और थैंक यू बोल दिया| लड़की मुस्कुराई|

बाहर अँधेरा हो चुका था, ट्रेन रफ़्तार में थी| लड़का उठा, किताब को बैग में रखा और टॉयलेट की तरफ गया, हल्का हुआ और वापस आकर बैठ गया| वो अब खुश था लेकिन साथ ही थोड़ा परेशान भी| जैसे वह उसे जानना चाहता है, बात करना चाहता है, वह उसे पसंद करने लगा है लेकिन बात करे कैसे? ऐसा कौन सा विषय छेड़े जिसमे उसकी भी बराबर की रूचि हो और वो दोनों कुछ देर बात कर सके| उसने मन में ही चार से पाँच तरीके से बात बढ़ाने के बारे में सोचा परन्तु थोड़ी देर की गणना के बाद उसे लगा कि प्रायिकता के नियमानुसार उसका कोई भी तरीका बात को दो या तीन मिनट से अधिक नहीं खींच सकता और उसे यह भी डर था कि कहीं प्रभाव जमाने के चक्कर में किसी असफल प्रयास से उसका मजाक न बन जाए| फिर वो स्वतः ही शांत हो गया और सोचने लगा की ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा है?

शीघ्र ही स्फूर्त मस्तिष्क ने जवाब दिया- इसमें गलती तुम्हारी नहीं है, सारा दोष सिस्टम का है|
उसने कहा- सिस्टम! वो कैसे भला?

मस्तिष्क ने जवाब दिया- क्योंकि सिस्टम नहीं चाहता की लड़का-लड़की बराबर हों,  उनमें करीबी हो या भेदभाव ख़त्म हो|

उसने कहा- ऐसा नहीं है, अब तो सब लोग कहते हैं की लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं है|
मस्तिष्क बोला- यही तो अन्तर्विरोध है, द्वंद्व है, कंट्राडिक्शन है|

उसने पूछा- कैसे?

मस्तिष्क ने जवाब दिया- जिस सिस्टम में तुम रहते हो उसका दोहरा चरित्र है और सिस्टम से अभिप्राय है तुम्हारा परिवार, परिवेश, पड़ोसी, पटीदार, पाठशाला, पढ़े लिखे लोग, सरकार और स्वयं तुम भी| इसने तुम्हे हमेशा अलग थलग रखा है तुम्हारे काबिलियत के पैमाने हमेशा अलग अलग थे और वो आज भी है| बचपन के पह्ले चार से पाँच साल तक तो सब  ठीक रहता है लेकिन जैसे ही उम्र बढती है प्रतिबंधों का दौर प्रारंभ हो जाता है और बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पैर रखते ही आप सर्वाधिक संवेदनशील स्थिति में होते हैं|

याद करो जिस लड़की के साथ तुम बचपन में तुम घर-घर खेलते वक़्त एक ही प्लेट में खाना खाए, कंचे, गुल्ली-डंडा, आइस-पाइस या क्रिकेट खेले| आज उससे बात करते वक़्त उसकी माँ उसे झल्लाकर डांटती है और अन्दर जाने को कहती है| याद करो स्कूल में खेलते वक़्त जब तुमने किसी लड़की की तरफ उंगली से इशारा करते हुए अपने दोस्त से कुछ कहना चाहा, तो तब उसने पहली बार तुम्हे संस्कार दिया की लड़की की तरफ ऊँगली दिखा के नहीं बोलते| तब तुम्हे पहली बार आभास हुआ की वो भी शायद उस कुम्हड़े की तरह है जो की तर्जनी के इशारे से सूख सकती है| ऐसे ही एक बार तुम्हे भी डांट पड़ी थी जब तुमने किसी लड़की से बात की थी, तब तुम्हारे ही परिवार के किसी बड़े ने कहा था की यह समय अपना भविष्य बनाने का है न की किसी लड़की से बात करने का| तब तुम यही सोंचते रहे की किसी लड़की से बात करने से भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा?  
उसने पूछा- लेकिन इसमें सरकार का क्या दोष है?

उत्तर मिला- क्यों नहीं है? प्राथमिक विद्यालयों तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही माध्यमिक या इंटरमीडिएट विद्यालयों में आप प्रवेश करते हैं, आप अपने लैंगिक पहचान की वजह से अलग कर दिए जाते है, जहाँ महिला विद्यालय और सामान्य विद्यालय अलग होते हैं क्योंकि ध्यान रहे आप अब बेहद संवेदनशील अवस्था में हैं|

उसने कहा- लेकिन मेरी कक्षा में तो लड़कियाँ थीं|

जवाब आया- सही कहा लेकिन को-एजुकेशन की उस उस व्यवस्था में तुम ही बताओ की छठी से लेकर बारहवीं तक तुमने कितनी बार किसी लड़की से बात की?

उसने कहा- यही कोई चार से पाँच बार|

बात जारी रही- और याद करो की कक्षा का सिटिंग मैनेजमेंट भी ऐसा था जिसमे छात्र और छात्राओं की बेंचो के बीच की दूरी किन्ही दो छात्रों के बेंच के दूरी की तुलना में कहीं अधिक होती थी ताकि आप एक दुसरे के चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र से अलग रहें| क्या बिना कारण के तुम किसी कक्षा की लड़की से बात करते थे जैसे किसी भी लड़के से करते हो? और गलती से कोई शिक्षक तुम्हारी बातचीत को देख ले तो ऐसा लगता की तुम अब उसके निशाने पर हो|

आज तुम फिर ऐसे कॉलेज से पढ़ रहे हो जहाँ के शैक्षणिक ढाँचे में लैंगिक विस्थापन जारी है| जहां विभेदक बर्ताव व सकारात्मक कार्यवाही के नाम पर भले ही अलग महिला विद्यालय या महाविद्यालय स्थापित कर दिए गए हो परन्तु वास्तविकता यही है कि यहाँ पर भी समरसता व सामंजस्य का अभाव है| इसने तुम्हे ऐसा बना दिया है जहां तुम स्वयं को उनसे बहुत अलग पाते हो और सच तो यह कि उनमे भी तुम्हारे प्रति कुछ ऐसे ही विचार है|

वो लड़का गहन चिंतन में था तभी मस्तिष्क ने आगे बताया- इस तरह के परिवेश में आप एक दूसरे को नहीं समझते तथा एक दूसरे के प्रति कई प्रकार के पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहते हैं| परस्पर बात करने में झिझक होती है और आत्मविश्वास में कमी, ऐसे में आप किसी महिला को सहजता से नहीं लेते या तो आप मानसिक कुंठा के शिकार होते हैं या फिर अति-आवेग में जरुरत से ज्यादा कह जाते हैं| कई बार स्थिति जब संघर्ष या प्रतिरोध की होती है तब सामाजिक या शारीरिक रूप से सबल पुरुष वर्ग प्रायः हावी हो जाता है तथा महिला को अपमानित कर या अपशब्द कहकर विजयी महसूस करता है| कभी-कभी स्थिति उलट भी हो सकती है परन्तु यह विभेद बढ़ता जाता है|
वह लड़का स्वयं को बड़ी तल्लीनता के साथ सुन रहा था

अब तुम्ही बताओ की महिला सशक्तिकरण, नारीवादी चेतना व महिला पुरुष की बराबरी के लिए किये जाने वाले प्रयास स्वांग नहीं लगते? क्या इनका चरित्र दोहरा नहीं है? और ऐसा करने में सिस्टम का दोष नहीं है? जब तक आप व्यवहार में, दैनिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं को सहजता से स्वीकार नहीं करते तब तक इन सब प्रयासों का परिणाम सीमित ही होगा|

मस्तिष्क का बोलना जारी रहा- और सच तो यह है की तुम स्वयं भी इस सिस्टम के भुक्तभोगी हो और यही करण है की तुम असहज हो, तुममे इतनी हिम्मत नहीं है कि तुम उससे बात कर सको| तुम अपनी इस समस्या का समाधान एक घंटे में नहीं निकाल सकते जिसके साथ तुमने अपना अभी तक का जीवन जिया है और ये तुम्हारे व्यक्तित्व का एक कमजोर पहलू है|

लड़का अब शांत था, विचारमग्न था| वो अभी भी सामने वाली बर्थ पर बैठी थी, पर तंत्रिका तंत्र सामान्य गति से कार्य कर रहा था| तभी ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी, रात के साढ़े दस बज रहे थे| उस लड़की ने बैग उठाया और वो स्टेशन पर उतर गयी|