ब्रिटिश भारत के प्रमुख प्रौद्योगिकी शिक्षण संस्थान
भूमिका
:
औपनिवेशिक काल में
साम्राज्य को मजबूत करने के लिए जब अंग्रेजों ने कई महत्वपूर्ण निर्माण कार्य
प्रारंभ किया जैसे सार्वजनिक
भवनों, सड़कों, नहरों, बंदरगाहों, पुल,
रेलवे लाइन इत्यादि के
निर्माण का कार्य, तब उन्हें कम
खर्चीले लेकिन कुशल ओवरसियर, असिस्टेंट इंजिनियर, मिस्तरी, पर्यवेक्षकों (सर्वेयर) जैसे तबके के लोगों की ज़रूरत पड़ी। इस
दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह ज़रूरी था की उनके प्रशिक्षण के लिए कुछ संस्थान खोले जाएँ।
इसलिए सरकार ने विज्ञान की किसी और शाखा की बजाय इंजीनियरिंग की शिक्षा पर विशेष
ध्यान दिया। विज्ञान की यह शाखा इसलिए भी अधिक लोकप्रिय हुई क्योंकि इसमें पढ़ने
वाले छात्रों को तत्काल और निश्चित तौर पर रोज़गार मिल जाता। इसके शुरुआत में
छात्रों की संख्या भी अधिक आने लगी। पर ध्यान देने की बात यह है कि इन कॉलेजों का
उद्देश्य साफ़ था की इन्हें सिर्फ वही शिक्षा देनी है जिससे की इससे निकले छात्र
सिर्फ सहायक या उससे निचले पदों पर काम कर सकें क्योंकि भारत में किसी भी परियोजना
के लिए मुख्य तौर पर आने वाले इंजिनियर रॉयल इंडियन इंजीनियरिंग कॉलेज, कूपर्स
हिल, लन्दन से आते थे। यह कॉलेज ख़ास तौर पर भारत के लिए इंजिनियर तैयार करता था।
थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज, रूड़की
सिविल
इंजीनियर्स के प्रशिक्षण के लिए वर्ष 1847 में रुड़की (आज के उत्तराखंड) में
पहला इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया था। थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग के
रूप में इसे नाम दिया गया। ऊपरी गंगा नहर के लिए बनाए गए बड़े कार्यशालाओं और सार्वजनिक इमारतों
का उपयोग इस कॉलेज के रूप में किया गया था। बाद में इसका नाम सहारनपुर इंजीनियरिंग
कॉलेज रखा गया और फिर 1948 में इसे रुड़की विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर दिया गया। 2001 से इसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान,
रुड़की बना दिया गया। इस कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग विभाग की स्थापना 1847 में हुई थी और यह भारत का सबसे पुराना
इंजीनियरिंग विभाग है। थॉमसन कॉलेज के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग की स्थापना 1897 में हुई जोकि अपने समय का सबसे नया
विषय भी था।
इंजीनियरिंग कॉलेज, पूना
इस कॉलेज की स्थापना
1854 में हुई थी तथा तब इसे लोक निर्माण विभाग के
कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए खोला गया था। लेकिन 1865 में इसे बॉम्बे यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध कर दिया
गया। उसके उपरांत इसे 1884 में पूना साइंस कॉलेज का नाम दिया गया तथा यह
अपनी ख़ास शिक्षा के लिए जाना जाता था। इसमें इंजीनियरिंग के साथ-साथ कृषि एवं
वानिकी भी पढ़ाया जाता था। भारत रत्न एम. विश्वेश्वरैया, जिनके सम्मान में
“इंजिनियर दिवस” मनाया जाता है वो इसी संस्था के छात्र रहे हैं।
सिविल
इंजीनियरिंग कॉलेज, कलकत्ता
इस कॉलेज की स्थापना
1856 में रायटर्स बिल्डिंग में की गयी थी जो की पहले
ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों का ऑफिस था। 1865 में
इसे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से सम्बन्ध कर दिया गया। 1880 में इसका कैंपस बदलकर शिबपुर हावड़ा में स्थापित कर
दिया गया। 1920 में इसका नाम बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज रख दिया गया
और 2014 में भारतीय अभियांत्रिकी विज्ञान तथा
प्रौद्योगिकी संस्थान, शिबपुर बन गया।
कॉलेज
ऑफ़ गुंडी, मद्रास
ईस्ट
इंडिया कंपनी द्वारा सर्वेक्षकों की बढ़ती आवश्यकता के कारण, 1794 में माइकल टॉपिंग के सुझाव पर फोर्ट
सेंट जॉर्ज के पास एक इमारत में 'स्कूल
ऑफ सर्वे' की स्थापना की गई थी। यह विद्यालय देश
में अपनी तरह का पहला संस्थान था और यह 8 लड़कों के साथ शुरू हुआ। इसकी स्थापना
शुरुआत में सिर्फ सर्वे के लिए प्रशिक्षण देने के लिए की गयी थी। 1858 में मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज से इसे
सम्बन्ध कर दिया गया और इसका नाम सिविल इंजीनियरिंग स्कूल कर दिया गया। 1859 में मैकेनिकल इंजीनियरिंग कोर्स को
शामिल करने के साथ इसे इंजीनियरिंग कॉलेज
के रूप में पुनः नामित किया गया।
बनारस
इंजीनियरिंग कॉलेज
इसकी स्थापना 1919 में की गयी थी तथा शुरुआत में बनारस इंजीनियरिंग
कॉलेज (BENCO), कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलॉजी, 1923 (TECHNO),
कॉलेज ऑफ़ माइनिंग एंड मेटलर्ज़ी, 1939 (MINMET) नाम की तीन संस्थाओं को स्थापित किया गया था जोकि
कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में थीं। इसके 1968 में इन
तीनों संस्थाओं को मिलाकर प्रौद्योगिकी संस्थान, कशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनाया
गया जोकि 2012 से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कशी हिन्दू
विश्ववद्यालय के नाम से जाना जाता है।
हार्टकोर्ट
बटलर टेक्नोलॉजिकल इंस्टिट्यूट, कानपुर
25 नवंबर
1921 को, संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के
तत्कालीन गवर्नर सर स्पेंसर हार्कोर्ट बटलर ने औपचारिक रूप से इस संस्था के मुख्य
(प्रशासन) भवन की नींव रखी। इसे 1921 में गवर्नमेंट टेक्नोलॉजिकल इंस्टिट्यूट नाम
दिया गया। 1928
में इसे हार्कोर्ट बटलर टेक्नोलॉजिकल
इंस्टीट्यूट का नाम मिला। एचबीटीयू, नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट (1936), सरकारी केंद्रीय वस्त्र संस्थान (1937), उत्तर प्रदेश वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान
तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर की मातृ संस्था रहा है। 1 सितंबर 2016 तक, इसे विश्वविद्यालय की स्थिति और नाम दिया गया था।
इंडियन
स्कूल ऑफ़ माइंस, धनबाद
रॉयल स्कूल ऑफ़ माइंस
लन्दन जोकि माइनिंग के छेत्र में विख्यात था, उसकी तर्ज़ पर भारत में भी एक संस्थान
की स्थापना के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने 1901 के कलकत्ता अधिवेशन में सरकार से मांग की। उस
सिफारिश को मानते हुए इंडियन स्कूल ऑफ़ माइंस धनबाद की 1923 में स्थापना हुई जब भारत में वाइसराय लार्ड
इरविन थे। 1967 में इसे विश्वविद्यालय का दर्ज़ा दिया गया तथा 2016 में इसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान धनबाद कर
दिया गया।






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