विकास की आग में जलता आदिवासी समाज
“विकास आदिवासी और हिंसा”
हिमांशु कुमार की संस्मरणात्मक पुस्तक है। जिससे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के जीवन
की दास्तानों का एक नया अध्याय खुलता है। इससे आदिवासी समाज में विकास की तत्कालीन
स्थिति को आसानी से देखा और समझा जा सकता है। 24 जुलाई 1991 से नई उद्योग नीति पर अमल करने के बाद भारत में एक नये किस्म के विकासवाद
की लहर का प्रवेश हुआ। भारत भूमंडलीकरण की दुनिया में कूद पड़ा। तेजी के साथ विकास
के नाम पर निजीकरण की प्रक्रिया को ख़ूब बढ़ावा मिला। कम्पनियों का तेजी के साथ
भारत में प्रवेश शुरू हुआ। कंपनियों को अपने लिये ज्यादा से ज्यादा कच्चे माल की
तलाश थी और यह कच्चा माल उन्हें आदिवासी इलाके में आसानी से मिल सकता था इसलिये
कंपनियों ने आदिवासी इलाकों में अपनी जड़े जमायी और संसाधनों की लूट का सिलसिला
बड़ी बेशर्मी से चालू हुआ ।
निजीकरण की प्रक्रिया को विकास की झलक के रूप में देखा जा
रहा है। कम्पनियों को रोजगार की जननी के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा लेकिन
स्थिति इससे उलट है। जिस आदिवासी इलाके में ये कंपनिया लगती है जरा आजादी के सात
दशक बाद वहां की स्थिति तो देखें- "वहां हमने देखा कि गांव में स्कूल चल रहा
है 40 साल से, लेकिन कोई
पढ़ा लिखा व्यक्ति नहीं है। राशन की दुकान तो है पर साल में दो बार राशन आता है।"1
ये आंकड़ा कितना भयावह है कि वहां कोई व्यक्ति पढ़ा लिखा नहीं है। वहां
आधुनिक किस्म की शिक्षा तो दूर पारंपरिक किस्म की शिक्षा का भी अभाव है। राशन की
भारी समस्या है। स्वास्थ की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। जिन कम्पनियों को विकास की
जननी घोषित किया जा रहा है, रोजगार के बहुत बड़े केन्द्र के
रूप में देखा जा रहा है वहां आदिवासियों के लिये कौन सा रोजगार और किस तरह का
रोजगार है? क्या ये कम्पनियाँ जिनका मूल उद्देश्य मुनाफा
कमाना होता है क्या वे उन अशिक्षित आदिवासियों को सम्मानजनक रोजगार दे सकती हैं?
तो मेरा उत्तर है नहीं!
जिन्हे कम्पनियों से विकास का स्वप्न दिखायी देता है उनकी
बुद्धि का क्या कहना। वे शायद पूंजी के लाभ और हानी के सिद्धान्त को भूल जाते हैं,
वे ये भी भूल जाते हैं कि कोई भी व्यापार मुनाफे पर टिका होता है। कम्पनियों का
मूल चरित्र सिर्फ और सिर्फ़ मुनाफा कमाना होता है विकास करना नहीं। पूंजीपतियों ने
विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों में बड़ी-बड़ी मशीनें लगायी। विकास और रोजगार का झांसा
देकर आदिवासियों को जमीनों से बेदखल कर दिया। अगर इस तरह नहीं तो सलवा जुडूम चला
कर। यह सलवा जुडूम कुछ इसी तरह है जैसे यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री के राज्य के
गौ रक्षक और एंटी रोमियों दल। वे आदिवासी इलाकों में बड़ी संख्या में पहुँच कर उन्हें
वहां से पलायन करने पर मजबूर करते हैं। सही अर्थों में कहा जाय तो ये किराये के गुंडे
है जिन्हे सरकार अपनी व कम्पनियों की सहूलियत के लिये रखती है - "सरकार ने 5000
गुंडों को इकट्ठा किया, उनको थ्री नॉट थ्री की रायफलें दी और कहा कि
तुम लोग स्पेशल पुलिस ऑफिसर हो। तुम्हारा काम है गाँव खाली कराना और उनके साथ पैरामिलिट्री
फोर्सेस को जोड़ा गया।"2
आदिवासियों को उनके जमीनों से विस्थापित किया जा रहा।
उनके पारंपरिक खेती के कार्यों को नष्ट किया किया जा रहा। अत्याधुनिक मशीनों के
चलते उनके पारंपरिक कलाओं जिसके द्वारा वे जीवनयापन करते थे उससे उन्हें दूर किया
जा रहा। यह उसी तरह का आदिवासी इलाकों में एक नया अर्थतंत्र है जैसे मध्यकालीन
गांवों में ब्रिटिश अर्थतंत्र। विकास के नाम पर उनकी हस्तकलाओं, खेती आदि को समाप्त किया जा रहा और शहरों का निर्माण हो रहा। जिसके चलते
आदिवासी समाज के लोग मजदूरी, बंधुआ मजूदरी करने व खानाबदोश
का जीवन जीने को अभिशप्त हैं। विकास का यह ऐसा मॉडल है जिसमें गरीब, गरीब ही बना रहता है। आज तक की विकास परियोजनाओं की खास विशेषता बताते
हुये हिमाशुं कुमार लिखते हैं कि - "भारत का जो विकास का माडल है बंदूक के दम
पर ही चल सकता है। आजादी के बाद से आज तक एक भी प्रोजेक्ट बिना पुलिस और बंदूक के
लगाया ही नहीं गया।"3 यह दमनात्मक और लूट का
सिलसिला औपनिवेशिक भारत का नहीं बल्कि आजाद भारत का है। जैसे अंग्रेजी राज के बारे
में, उसकी सत्ता और विकास के बारे में यह सच था कि अंग्रेजी राज में कभी खून नहीं
सूखता उसी तरह कम्पनियों के बारे में भी यह सच है कि कम्पनियों के द्वारा हुआ कथित
विकास बिना खून से सने नहीं हो सकता।
आदिवासी समाज के लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी
मूलभूत आवश्यकताओं के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं।
अपनी जमीनों के मुआवजे, शिक्षा,
स्वास्थ्य, रोजगार आदि जैसे मूलभूत आवश्यकताओं पर व अपने
अधिकारों के लिये आवाज उठाने पर उन्हें नक्सलवादी कह कर पूंजीपतियों की सहायता
करना सरकार का धर्म बन गया है। हक-हकूक की इन आवाजों को कुचल देने में ये सरकारें
माहिर हैं। इस चमचमाती बिंलडिगों, उद्योगों, फैक्ट्रीयों, कम्पनियों आदि जो विकास और रोजगार की
जननी मानी जाती है जरा उनके विकास के चेहरे के पीछे की भयावह स्थिति को देखें - "महिलाओं
के साथ बड़े पैमाने पर सिक्योरिटी फ़ोर्सेज ने बलात्कार किया। उनके बच्चों की
हत्याएं, बूढ़ों की हत्याएं, उनके घरों
में आग लगा दी गयी। फसलें जला दी गयीं, पानी के हैंड पंप
तोड़ दिये गए, तालाबों और कुओं में जहर डाल दिया गया कि यह
लोग उजड़ जायें।" दरअसल आज के विकास का यही मूल चरित्र है, जो कुछ पूंजीपतियों
के हाथों की कठपुतली है। जरा विकास के पीछे के बर्बर दमन का एक चित्र और देंखे - "जिसमें
16 आदिवासियों को CRPF की कोबरा बटालियन ने तलवारों से काट
दिया था। 80 साल के बुजुर्ग का पेट फाड़ दिया था। 70 साल की महिला का स्तन काट
दिया।"4 दरअसल यही विकास का पूंजीवादी मॉडल है जो
सिर्फ़ मुनाफे के सिद्धान्त पर खड़ा होता है। उसे सामाजिक भागीदारी व उसके विकास
के बजाय अपना लाभ-हानी दिखाई देता है। भारतीय मीडिया इस कदर चरित्रहीन है कि वह इन
तमाम मुद्दों पर लगभग खामोश बनी रहती है। अगर कुछ इस तरह की घटनाओं का जिक्र उसने
कभी किया भी है तो आदिवासियों को नक्सली के रूप में व्याख्यायित करने के लिये।
दरअसल मीडिया जन भावनाओं पर कार्य करने के बजाय सरकारी तंत्र का पिछलग्गू बनी पड़ी
है। नक्सलवाद पर सरकारें भी व्यवस्थित रूप से विचार करने के बजाय उसे फोर्स के
द्वारा दबा देने में ज्यादा विश्वास करती हैं। वे नक्सलवाद को सामाजिक व आर्थिक
समस्या के रूप देखने के बजाय राजनीतिक समस्या के रूप में व्याख्यायित करती हैं। वे
इस बात पर भी विचार नहीं करना चाहती कि नक्सलवादी क्षेत्रों में “लोग 20-40 रूपये की औसत दैनिक मजदूरी पर जीने को
मजबूर हैं। इसके साथ अन्य प्रकार के दबाव व शोषण अलग से हैं।”5 दरअसल नक्सलवाद का संबंध आर्थिक समस्याओं से बहुत गहरे जुड़ा हुआ है। इस
गंभीर समस्या को, लगातार बढ़ रही गहरी आर्थिक विषमता को समाप्त करके व सामाजिक
धरातल पर शिक्षा, स्वास्थ्य रोजगार के ऐजेंडे पर चल कर कुछ
हद तक समाप्त करने की प्रक्रिया की तरफ बढ़ा जा सकता है।
बहरहाल तीसरी दुनिया के तमाम देशों में हो रहे विकास का
आलम यही है। हर जगह आदिवासीयों पर हमले हो रहे। दुनिया भर में जंगलों, पहाड़ों, खनिजों को लूटा जा रहा। वैश्वीकरण का
स्वपन जो एक संस्कृति में विश्वास करता है बहुत ही भयावह है। पूंजीवाद की संस्कृति
को बनाये रखने के लिये आदिवासी सरीखे तमाम विभिन्न संस्कृतियों का खात्मा किया जा
रहा। विकास के नाम सामाजिक विषमता की खायी बढ़ती जा रही। हर रोज उद्योग और रोजगार
के नाम पर आदिवासियों को उजाडा जा रहा और हम चुप हैं। लेकिन हमें लेखक की इस बात
का उत्तर तलाशना होगा कि - "क्या हम अपनी बेटियों बहनों के साथ इस देश के
विकास के लिये बलात्कार करने को तैयार हैं?"6
संदर्भ ग्रंथ -
1 “विकास आदिवासी और हिंसा”, हिमांशु कुमार, notion press, पृष्ठ संख्या 4
2 वही 10
3 वही 30
4 वही 23
5 “आदिवासी दुनिया”, हरिराम मीणा, पृष्ठ संख्या 151
6 “विकास आदिवासी और हिंसा”, हिमांशु कुमार, notion press, पृष्ठ संख्या 65

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