टिम्बकटू का संक्षिप्त इतिहास
ज्यादातर लोगों को ये लगता है कि टिम्बकटू धरती पर स्थित कोई दूरदराज जगह होगी जिसका वर्णन अंग्रेज़ी शब्दकोषों में कुछ ऐसे ही किया गया है. बाकी लोगों को लगता है कि टिम्बकटू कोई जगह नहीं बल्कि किसी काल्पनिक कहानी में वर्णित एक स्थान का नाम है. लेकिन सच्चाई ये है कि टिम्बकटू वर्तमान में सहारा मरुस्थल के तटवर्ती इलाके में बसे देश "माली" में स्थित एक जगह का नाम है जिसका एक समृद्ध इतिहास है.
टिम्बकटू की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में 'तुआरेग इमाशगन' या 'केल तमाशेक़' नामक जनजातियों ने की थी. केल तमाशेक़ बारिश के मौसम में अपने ऊँटों और भेड़ों के झुंड के लिए चारे की खोज में रेगिस्तान में भटकते फिरते थे. सूखे के मौसम में पानी और चारे की जरुरत को पूरा करने के लिए वो अपने झुंड के साथ वो नाइजर नदी के किनारों पर बसेरा बना लेते थे.
जब भी रेगिस्तान में बारिश के बाद मौसम हरा होता, तो तुआरेग लोग अपने भारी भरकम सामानों को एक बूढी तमाशेक़ औरत की देखरेख में छोड़ देते थे, जिसे "तिन अबुतुत" कहा जाता था. जो उन सामानों की देखभाल करती और वो जगह रेगिस्तान में किसी भंडारघर या व्यापार में उपयोग किये जाने वाले समानों का डिपो बन जाता था. इसी तरह टिम्बकटू शहर का नाम भी ऐसी ही एक औरत "ब्लैक लेडी" के नाम पर पड़ा.
टिम्बकटू के ऐतिहासिक शहर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है जहाँ नाइजर नदी सहारा रेगिस्तान के दक्षिणी किनारों पर बहते हुए उत्तर की तरफ जाती है. अपनी विशेष भौगोलिक बसावट की वजह से टिम्बकटू सोंघाई, वनगारा, फुलानी, तुआरेग और अरब जातियों के मिलन का प्राकृतिक स्थल बन गया था. टिम्बकटू के निवासियों के अनुसार यहाँ दक्षिण से सोना आया, उत्तर से नमक आया और दैवीय ज्ञान टिम्बकटू से जनित हुआ. अपनी विशेष स्थिति की वजह से टिम्बकटू की ऐतिहासिक विविधता महत्त्वपूर्ण है. टिम्बकटू ग्यारहवीं शताब्दी और उसके बाद से पश्चिमी और उत्तरी अफ्रीका से आने वाले वस्तुओं का व्यापार केंद्र बन गया. भूमध्य सागर के तटों से आने वाले सामान और नमक के बदले में टिम्बकटू से सोने का निर्यात होता था.
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टिम्बकटू की भौगोलिक स्थिति |
इस शहर की संपन्नता ने अफ्रीका और अरब के व्यापारियों तथा विद्वानों को आकर्षित किया. ज्ञान और व्यापर के अनूठे संगम की वजह से यह टिम्बकटू ज्ञान, संपत्ति और विश्वसनीयता के केंद्र के रूप में जाना जाने लगा. नमक, सोना और किताबें वो मुख्य वस्तुएं थीं जिनका व्यापर टिम्बकटू में किया जाता था. नमक की खुदाई उत्तर स्थित तेगाज़ा और तओदेनित की खदानों से, सोना बॉर्न और बंबुक से आता था, जबकि किताबें अफ्रीकी तथा अरबी विद्वानों के विद्वत्पूर्ण कार्यों का परिणाम थीं.
टिम्बकटू में बसे घरों की संरचना तथा उनकी बनावट अरब और अफ्रीकी वास्तुकला का मिश्रण था, साथ ही वे रेगिस्तान में रहने योग्य एक अनुकूल माहौल प्रदान करते थे. अपने समय में टिम्बकटू देश-विदेश से आने वाले विद्यार्थियों और व्यापारियों का संगम था. अफ्रीका के दक्षिण-पश्चिम में बसे देश घाना पर सोसो नामक राजा के आक्रमण और लूटपाट के बाद वहां के अधिकाँश विद्वान टिम्बकटू में आकर बस गए.
12वीं शताब्दी तक, टिम्बकटू अफ्रीका में इस्लामिक शिक्षा तथा व्यापार का मुख्य केंद्र बन चुका था. टिम्बकटू में एक विश्वविद्यालय था, जिसमें तीन प्रमुख विभाग थे और क़ुरान की शिक्षा देने वाले 180 केंद्र थे. ये तीन विभाग थे, संकोर, जिंगारे बेग और सीदी याह्या.
यह काल अफ्रीका के स्वर्णिम युग के जैसा था. यहाँ न सिर्फ किताबें लिखी जाती थीं बल्कि उनका आयात तथा उनकी प्रतियाँ भी तैयार की जाती थीं. स्थानीय स्तर पर किताबों की प्रतियाँ तैयार करने का एक उद्योग विकसित हो गया था. वहाँ के विश्वविद्यालयों तथा निजी पुस्तकालयों में अनगिनत विद्वानों की किताबें मौजूद रहती थीं. टिम्बकटू के एक मशहूर विद्वान अहमद बाबा, जिन्हें बाद में मोरक्को निर्वासित कर दिया गया था, के अनुसार उनके पुस्तकालय में मौजूद 1600 से अधिक किताबों को लूटा गया, जबकि उनका पुस्तकालय टिम्बकटू के सबसे छोटे पुस्तकालयों में से एक था.
टिम्बकटू ने अपने ज्ञान और शोहरत की वजह से सभी को अपनी ओर आकर्षित किया. साथ ही ये शहर सभी का स्वागत भी करता था. 20 अप्रैल, 1628 को एक फ़्रांसिसी विद्वान रेने कैले टिम्बकटू पहुंचे. रेने ने अपने शब्दों में इस शहर का वर्णन कुछ इस प्रकार किया, "जैसे ही इस रहस्यमय शहर में मैंने प्रवेश किया, मुझे एक अतुलनीय खुशी और संतुष्टि का अहसास हुआ. मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं किया था. मेरी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी." टिम्बकटू के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन जर्मन खोजकर्त्ता हेनरी बार्थ ने भी किया था. ये शहर आज भी दूरदराज से आने वाले लोगों का स्वागत करता है. यात्रियों ने टिम्बकटू को सूडान का रोम, अफ्रीका का एथेना तथा सहारा का मक्का कहा है.
टिम्बकटू की उन्नतशील अर्थव्यवस्था ने माली के शासक मंशा मूसा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. उसने वर्ष 1325 में टिम्बकटू पर कब्ज़ा कर लिया. एक मुसलमान होने के नाते, मंशा मूसा टिम्बकटू की इस्लामिक धरोहर से बहुत प्रभावित हुआ. अपनी मक्का यात्रा से वापस आते वक़्त मंशा मूसा अपने साथ एक मिस्र के एक वास्तुकार को साथ लाया और मूसा ने उसे 'जिंगारे बेर' या जुमे की नमाज़ के लिए मस्जिद बनाने के लिए 200 किलो सोना दिया. मंशा मूसा ने टिम्बकटू में एक शाही महल या मदुगु का निर्माण भी करवाया.
इसके अलावा सम्राट मंशा मूसा ने टिम्बकटू में अरबी विद्वानों को आमंत्रित किया. लेकिन उसे ये जान कर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि अरब के उन विद्वानों में टिम्बकटू के विद्वानों से वाद-विवाद करने का सामर्थ्य नहीं था. उदाहरण के तौर पर अब्द अराहमन अतीम्मी जो खुद को अरब का विद्वान समझता था, उसने टिम्बकटू के विद्वानों के समक्ष स्वयं को बहुत ही कमतर पाया और वह वापस मर्राकेश चला गया तथा उसने अपनी आवश्यक शिक्षा ग्रहण की ताकि वह टिम्बकटू कक्षाओं में एक विद्यार्थी की हैसियत से बैठ सके.
वर्ष 1324 में मंशा मूसा द्वारा की गई मक्का की तीर्थ यात्रा के कारण माली को पूरी दुनिया में पहचान मिली. सम्राट अपने साथ घोड़ों पर सवार 60,000 सैनिकों के दस्ते और ऊँटों पर 12 टन शुद्ध सोना लेकर गया था. उसके पास इतना सोना था कि जब उसका काफिला मिस्र में रुका तो मिस्र के मुद्रा की कीमत बहुत गिर गई. इस घटना के बाद माली और टिम्बकटू को दुनिया में बहुत पहचान मिली.
मंशा मूसा के भाई अबू बकर द्वितीय ने अटलांटिक महासागर के रास्ते मक्का जाने के रास्ते के खोज की योजना बनाई. अबू बकर और उसकी नौसेना ने सेनेगल के तटों से अटलांटिक की अपनी यात्रा प्रारंभ की लेकिन तमाम मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करने के बाद वो वापस लौट आए. कुछ वर्षों बाद, अबू बकर ने दोबारा इस यात्रा की योजना बनाई और अपने साथ एक बड़ी सेना और साजो सामान लेकर निकला लेकिन वो दोबारा कभी वापस नहीं लौट सका. वर्तमान में इस बात के पुख्ता सबूत मिलते हैं कि माली के राजकुमार अबू बकर ने सबसे पहले अमेरिका की खोज की थी. उदहारण के तौर पर, ब्राज़ील के कुछ हिस्सों में बोली जाने वाली मंदिनका भाषा, वहाँ के रीति-रिवाज़ और संस्कृति तत्कालीन टिम्बकटू के जैसी ही है.
वर्ष 1339 में आधुनिक बुर्किना फासो के राजा मोस्सी ने टिम्बकटू पर आक्रमण कर दिया. मोस्सी ने वहाँ बहुत अत्याचार और नरसंहार किया. उसने टिम्बकटू को तबाह कर दिया. हालाँकि, मंदिका राजवंश ने किसी तरह मोस्सी की सेना से टिम्बकटू को बचा लिया और मंशा मूसा के उत्तराधिकारियों ने वर्ष 1434 तक इस पर शासन किया. लेकिन इसके बाद तुआरेग नेता अकील अकमल्वाल ने टिम्बकटू पर आक्रमण कर दिया. अकील बहुत पवित्र विचारों वाला शासक था. वो उलेमा और विद्वानों का बहुत सम्मान करता था. अकील ने मोहम्मद नद्दी नाम के एक तुआरेग को टिम्बकटू का गवर्नर नियुक्त किया. मोहम्मद नद्दी की मौत के बाद, अकील ने उसके बेटे उमर को उसके स्थान पर नियुक्त किया. बाद के वर्षों में तुआरेगों ने टिम्बकटू में इतना भ्रष्टाचार, आतंक और अव्यवस्था फैला दी कि मोहम्मद नद्दी के बेटे उमर को गाओ में रहने वाले सोंघाई जाति के शासक सोनी अली बेर से मदद मांगनी पड़ी.
वर्ष 1469 में, सोनी अली बेर ने टिम्बकटू पर जीत हासिल कर ली. अकील शहर छोड़ के भाग गया. सोनी अली बेर ने वहाँ के अनेक विद्वानों को मौत के घात उतार दिया और बाकी बचे लोग वलाटा भाग गये जो कि आधुनिक मॉरिटानिया गणतंत्र है. इसी वजह से टिम्बकटू से संबंधित अधिकांश दस्तावेज मॉरिटानिया में विद्यमान हैं. सोनी अली बेर के सेनापतियों में से एक अस्किया मोहम्मद, जो कि इस्लाम का कट्टर समर्थक था, सोनी अली बेर का टिम्बकटू के उलेमा और विद्वानों पर किये गये अत्याचारों से बहुत आहत था.
वर्ष 1493 में अस्किया मोहम्मद ने सोंघाई शासक सोनी अली के शासन का तख्ता पलट कर दिया. इसके बाद उसने टिम्बकटू से भाग गए विद्वानों को पुनः आमंत्रित किया. साथ ही उन्हें वित्तीय सहायता और राजकीय आश्रय दिया गया. कहा जाता है कि अस्किया मोहम्मद राजकीय कार्यों को सुचारु ढंग से चलाने के लिए भी इन विद्वानों की मदद लेता था. वर्तमान टिम्बकटू में विद्यमान दस्तावेजों में अस्किया और उसके विद्वानों के सवाल-जवाब का वर्णन है. अस्किया राजवंश के अधीन टिम्बकटू ज्ञान और व्यापार की दृष्टि से पुनः समृद्ध होने लगा. लेकिन वर्ष 1591 में मोरक्को के शासक पाशा महमूद इब्न ज़र्कून ने टिम्बकटू पर कब्ज़ा कर लिया.
मोरक्को की सेना ने टिम्बकटू की दौलत को लूट लिया, पुस्तकालयों को जला दिया और विद्वानों को मार दिया, जबकि अनेक विद्वानों को फेज़ और मर्राकेश में निर्वासित कर दिया, जिसमें से टिम्बकटू के मशहूर विद्वान अहमद बाबा भी थे. टिम्बकटू के विद्वानों में अटूट न्याय परायणता और धार्मिक आस्था थी तथा उनका मानना था कि अल्लाह ही सर्वोच्च सत्ता है और उसके अलावा वे और किसी के अधीन नहीं हैं. इस संदर्भ में उस वक़्त की एक घटना का उल्लेख मिलता है जब पाशा महमूद ने धोखे से उन लोगों से एक ऐसी संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया जो कि इस्लाम के खिलाफ थी. उस वक़्त सीदी याहया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और विद्वान मोहम्मद बगायोगो ने इससे इनकार किया और पाशा से कहा, "तुम चाहो ओ मेरे हाथ काट दो लेकिन मैं किसी भी गलत बयान पर अपने हस्ताक्षर नहीं करूँगा." मोरक्को के आक्रमण के बाद टिम्बकटू की अधिकाँश दस्तावेज़ और पुस्तकें फेज़ और मर्राकेश चली गई.
वर्ष 1893 में पश्चिमी अफ्रीका में फ़्रांसिसी औपनिवेशीकरण के बाद, टिम्बकटू तब तक फ़्रांसिसी शासन के अधीन रहा जब तक वर्ष 1960 में माली एक स्वतंत्र देश नहीं बन गया. वर्तमान में टिम्बकटू के अधिकाँश धरोहर फ्राँस के संग्रहालयों और विश्वविद्यालयों में मौजूद है.
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