अमेरिकी रेड इंडियन 

कुछ दिनों पहले खबर की थी कि 27 वर्षीय अमेरिकी इसाई मिशनरी जॉन एलन चाऊ की अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के उत्तरी सेंटिनल द्वीप के मूल निवासियों द्वारा हत्या कर दी गयी थी. हालांकि यह खबर सुर्ख़ियों में कुछ दिनों तक रही लेकिन उसके बाद उनके परिवार के लोगों द्वारा किसी भी प्रकार का केस न किये जाने तथा चाऊ के द्वारा स्वयं को जोखिम में डालने के उसके निर्णय से मामला रफा दफा हो गया और अदालत ने उन मछुआरों को भी बरी कर दिया जिन्होंने वहां तक पहुँचने में उसकी मदद की थी. अपनी इस जोखिम भरी यात्रा का जिम्मेदार चाऊ स्वयं ही था और उसे यह निश्चित तौर पर पता था की वहां जाना मतलब मौत को गले लगाने के समान है लेकिन जूनून था क्योंकि साहसिक काम करने निकले थे और वह था धर्म का प्रचार करना और उन मूल निवासियों को सभ्य बनाना. चाऊ ने अपने नोट्स में लिखा था की उन लोगों ने एक बार उसे घायल करके बीच पर छोड़ दिया था लेकिन सभ्य बनाने की उनके जूनून की वजह से वो दुबारा गए और इस बार नहीं बचे.

जॉन एलन चाऊ 

इस घटना का वर्णन करते समय मैंने मूल निवासी शब्द का प्रयोग किया है जबकि उन लोगों के लिए प्रायः आदिवासी शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है आदि काल से किसी स्थान पर रहने वाले वासी लेकिन व्यवहारिक तौर पर आदिवासी का मतलब लिया जाता है ऐसे लोगों के समूह से जोकि आदिम अवस्था में रहते हों उनके आवास, खान-पान, पहनावा आदि सब आधुनिक इंसानों से कमतर हो, वो असभ्य और बर्बर हों. लेकिन मेरा मानना है की वे लोग वहां उतने वर्षों से रहते आये हैं जिससे पहले का हमें इतिहास भी स्पष्ट रूप से नहीं पता है इसलिए उन्हें मूलनिवासी कहना ज्यादा उचित होगा. रही बात खान-पान की तो काँटा, छुरी और सफ़ेद कवर वाले टेबल पर शैम्पेन के साथ बैठ के खाना खाने वालों को वो असभ्य लगते हैं. उनके घर-घास फूस के होते हैं इसलिय वे एयर कंडीशनर नहीं प्रयोग कर सकते और पहनावे के नाम पर किचन में एप्रे और बाहर ओवरकोट की जगह वो नंगे रहते या शायद कभी-कभार पत्तियां लपेटे हुए तो शायद इसलिए वो असभ्य हैं. ये भी तो हो सकता है की उनके पूर्वजों ने आदम और इव की तरह स्वर्ग के बगीचे के सेब न खाए हों इसलिए उनमे लालच या शर्म जैसी भावना न पनपी हो और उन्होंने नंगे रहना पसंद किया हो. उत्तरी सेंटिनल द्वीप के निवासियों के बारे में मानना है की वो लोग करीब साठ हजार साल से वहां रह रहे हैं. इसी समय के दौरान सिन्धु, मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं का उदय और अंत भी हो गया. एक लघु हिम युग भी आ गया फिर भी वो जीवित हैं. जिस सुनामी ने पूरे दक्षिण पूर्व एशिया को प्रभावित किया उसने उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वो असभ्य हैं.        

खैर अब आती है उनको सभ्य बनाने की जिम्मेदारी, इस प्रक्रिया में इसाई मिशनरी सबसे आगे रहते हैं क्योंकि उनकी धारणा ये है की वे दुनिया के सबसे आधुनिक और सभ्य लोग हैं. उनका धर्म सबसे प्रभावी है और उसको मानने वाले स्वयं सभ्य हो जाते हैं. इतिहास में यह प्रयोग उन्होंने दुनिया भर में किया, काफी जगहों पर वो सफल भी रहे और कई जगह पर असफल भी. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि स्थानों पर वो सफल रहे लेकिन भारत, चीन तथा मध्य-पूर्व में तकरीबन असफल. जब ये लोग इन जगहों पर गए तो पहले तो इन्होंने उन्हें खाने-पीने की चीज़ दी और बदले में उनकी आज़ादी ले ली. उनकी जमीनें, घर, खेत जला दिए. कईयों को मार दिया और जो बचे उन्हें गुलाम बना दिया. उसके बाद मिशनरी आये, उन्होंने कहा इसाई धर्म स्वीकार कर लो, हम सभ्य बना देंगे. फिर सभ्य बनाने का काम शुरू हुआ. उन्हें अस्पताल दिए गये, उनको कपड़े पहनाये गये, उनके बच्चों को स्कूल भेजा गया, नए तरीके के भोजन और दवाइयां दी गयीं. और बदले में उनकी जमीनों पर कब्ज़ा किया गया वहां कोयला, सोना और तेल आदि खनिजों की खोज में उनकी बसी बसाई सभ्यता को नष्ट कर दिया गया. इसे ही उस समय के लोगों ने सभ्य होना कहा. यह बर्ताव अमेरिका में रेड इन्डियंस, ऑस्ट्रेलिया में अबोरिजिनल्स और अफ्रीकी निग्रोस के साथ किया गया.

15 वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका में यूरोप से, खासकर ब्रिटिश और फ्रेंच मूल के लोग भारी तादाद में पहुँच रहे थे और उन लोगों ने वहां के मूल निवासियों को जिन्हें वे रेड इन्डियंस कहते थे के तौर तरीके के बारे में कहा की वे लोग मुद्रा के बारे में नहीं जानते. उनकी अपनी कोई निजी संपत्ति या ज़मीन नहीं होती और पूरा कबीला सार्वजनिक तौर से खेती-बड़ी करता था. उत्पादन को पूरे कबीले में बांटा जाता था. वे लोग दस्तकारी के कामों में अत्यंत निपुण थे. सोना चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं का ज्ञान नहीं था. जब यूरोप के लोग पहुंचे तो उन्होंने उनका स्वागत किया. रेड इन्डियंस ने उन्हें तम्बाकू दिया और बदले में उन्हें मिली शराब. शुरुवाती रुझान तो ठीक थे लेकिन बाद में बाहरी लोगों ने उनकी ज़मीनों को घेरना शुरू किया, छोटे-छोटे शहर बसाने शुरू किये और बदले में उन लोगों को उन्ही की ज़मीनों से बेदखल करने लगे. उसके बाद उनको गुलाम बनाया गया और जो बचे वे जान बचाकर पश्चिमी अमेरिका के रेगिस्तानी इलाके में जाकर बस गये.

ऑस्ट्रलियाई अबोरिजिनल्स

ठीक इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी, जिन्हें वे अबोरिजिनल्स कहते हैं, के साथ हुआ. ब्रिटिश के हाथ में  ऑस्ट्रेलिया का विशाल भूखंड मिला. उन्होंने ब्रिटेन की जेलों में बंद कैदियों को इस बात पर आज़ाद होने दिया की वो चाहें तो ऑस्ट्रेलिया चले जाएँ और वापस न आयें. तब वहां बड़ी संख्या में अंग्रेज पहुंचे और ऑस्ट्रेलिया में इतना बड़ा मूल निवासियों का नरसंहार हुआ की तकरीबन दो तिहाई आबादी समाप्त कर दी गयी. वहां पर बड़े-बड़े कारखाने, खदाने और बागान लगाये गये जहाँ उन कैदियों को काम पर लगाया गया और आधुनिक ऑस्ट्रेलिया तैयार हुआ. कहा जाता है की वो लोग कई भाषाओं के जानकार थे तथा प्रकृति के प्रति उनका गहरा लगाव था.          

हालांकि ये सब इतिहास की बाते हैं, आज का समाज और उनकी सोच भले ही वैसी नहीं है या ये कहें की अब वे आर्थिक शोषण नहीं करेंगे या उनको गुलाम नहीं बनाया जायेगा लेकिन ऐसा अक्सर देखा गया है की जब भी आधुनिक मानव जाति का इन लोगों के साथ मेल मिलाप बढ़ा है तब कुछ नई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं. जैसे 70-80 के दशक में जब पहली बार अंडमान निकोबार द्वीप के मूल निवासियों जैसे जारवा, ओंगे या निकोबारी से मिलने की कोशिश की गयी तब वे पूर्णतः सेंटीलीज की तरह ही आधुनिक समाज से अलग थे लेकिन स्वाभाव से थोड़े नरम. सरकार ने उनके लिए कई मदद के काम किये जैसे उनको मलेरिया, कुपोषण व अन्य बिमारियों से बचने के लिए दवाईयां व टीके लगाये गये. उनके रहने के लिए आरक्षित स्थानों पर पक्के घर बनाये गये. साथ ही उनके बच्चों के लिए स्कूल खोले गये और उनके परिवारों को जीवन यापन के लिए भत्ता भी दिया जाता है. इससे उनके रीति-रिवाज, भोजन, रहन-सहन, स्वास्थ्य व भाषा पर नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है. अपने पारंपरिक जीवन को छोड़कर इस नए आरामपूर्ण जीवन में न केवल उनके कौशल में कमी आई है बल्कि भोजन व दिनचर्या में बदलाव से उन्हें नए प्रकार के संक्रमण ने भी घेरा है. एक खबर के मुताबिक जारवा जाति की एक वृद्ध महिला, एक विशेष प्रकार की भाषा जोकि छः हज़ार साल पुरानी थी जिससे वो पशु-पक्षी की भाषा बोल व समझ सकती थी को जानती थी, की मौत के बाद वो भाषा समाप्त हो गयी. 

कुछ इसी तरह की समस्याएँ दुनिया के अन्य मूलनिवासियों के साथ भी हो रही है जैसे पापुआ न्यू गिनी, जावा, सुमात्रा तथा अफ्रीका आदि के लोगो के साथ. उनके साथ समस्या न सिर्फ स्वास्थ्य की है बल्कि उनके सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचा भी बदला है. कई हिस्सों में आधुनिक मानव से उनके अंतर्संबंधों ने हिंसक घटनाओं को भी अंजाम दिया है. इन घटनाओं की कीमत उन इलाकों में रह रहे एन जी ओ, मिशनरी या रेड क्रॉस जैसे संगठनों के लोगों को चुकाना पड़ता है.

मधुमाला चटोपाध्याय सेंटीलीस के साथ 

कई अन्थ्रोपोलोजिस्ट जोकि तमाम मूलनिवासियों से मिले हैं या उनपर शोध कर चुके हैं उनका मानना है की इन सुदूर क्षेत्रों में बसे निवासियों का मूल उद्गम तकरीबन साठ हज़ार साल पुराना है तथा मुख्यतः ये अफ्रीका के नीग्रो प्रजाति से सम्बंधित हैं. अपनी पुरातन परंपरा व रहन सहन को बनाये रखने के कारण ये उस वातावरण में अनुकूल हो चुके हैं जिसकी वजह से ये इतने लम्बे समय से उसमे रह रहे हैं. मधुमाला चट्टोपाध्याय जोकि वर्तमान में भारत सरकार के सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण मंत्रालय में वरिष्ठ शोध अधिकारी हैं, वे पहली इन्सान हैं जिन्होंने सेंटीलीस लोगों से मित्रतापूर्वक 4 जनवरी 1991 में मिली थीं. उस वक़्त वे अन्थ्रोपोलोजीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की एक शोध छात्रा थीं. वे अंडमान के मूलनिवासियों पर कई शोध पत्र लिख चुकी हैं. उनका मानना है की वे लोग बाहरी दुनिया के किसी भी प्रकार के संपर्क में नहीं आना चाहते तथा वे प्रकृति, पशु-पक्षी, मौसम आदि का खासा ज्ञान रखते हैं तथा उनको पूजते हैं. वे सदियों से सौहार्दपूर्वक उस परिवेश में रहते आये हैं इसलिए उन्हें उनकी अवस्था पर छोड़ देना चाहिए. साथ ही उनका ये भी मानना है की हमे किसी प्राकृतिक आपदा के समय में उनकी मदद के आगे आना चाहिए अन्यथा नहीं.